অনুবাদঃ মঙ্গলেশ ডবরালের চারটি কবিতা – স্বপন নাগ

মঙ্গলেশ ডবরালের চারটি কবিতা – স্বপন নাগ

পাগলী
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সে যে পাগল, মোটামুটি নিশ্চিত !
ছেঁড়া-ফাটা কাপড়, উস্কোখুস্কো চুল, রাগী চোখমুখ
নিশ্চিত হবার জন্যে এগুলোই যথেষ্ট।
কিন্তু কী যে হয়েছিল তার সঙ্গে, তা বোঝা মুশকিল।

সাতসকালেই ঝুপড়ির গরিব বাচ্চাগুলো
বহুজাতিক কোম্পানির চিপস্-এর প্যাকেট কেনার জন্যে
জড়ো হয় পাড়ার যে-দোকানে,
তার সামনে দাঁড়িয়ে আছে পাগলী।
আর, তার পেছনে কিছু আওয়ারা কুকুর —
যেন বোঝার চেষ্টা করছে পাগলীর কথা।
অবিরাম বিড়বিড় করে এমন এক ভাষায় বকবক করত সে
বোঝার কোনো উপায় ছিল না।

কেউ বলল, ‘মনে হয় বাঙালি।’
অন্য একজন, ‘আরে না না, মাদ্রাজ সাইডের হবে,
সে জন্যেই তো ওর কথা কিচ্ছু বোঝা যায় না।’
আর একজন বলল, ‘ও হিন্দিভাষীই, কিন্তু নিজের ভাষাই ভুলে গেছে।’
কেউ আবার তার কথায় নাকি পাঞ্জাবি কিছু শুনেছিল।

তার কী যে দরকার, এটুকু জানাও বেশ কঠিন।
সে চায়ের দিকে ইশারা করে, কিন্তু চা দিই যখন,
সে তাকিয়ে থাকে বিস্কুটের প্যাকেটের দিকে,
বিস্কুট দিলে চিপস্-এর প্যাকেটের দিকে ;
চিপস্ দেওয়া হলে তার আঙুল নির্দেশ করে চায়ের দিকে
এভাবেই সে কতকিছুর দিকে ইঙ্গিত করে।
রাস্তার দিকে, গাছের দিকে, হাওয়া ও আকাশের দিকে তাকিয়ে
সে অনর্গল বলেই চলে …

কখনো মনে হয়, শূন্য থেকে টেনে এনে
আত্মস্থ করছে নিজেরই ভেতর,
কখনো মনে হয়, নিজেরই কথার জবাব
শুনছে সে মগ্ন হয়ে।
আর, তার বদলে শুধু অভিশাপ দিচ্ছে !

আমরা জিজ্ঞেস করি, ‘ও মাসী, শুধু বকবকই করবে,
না বলবে — কী চাই তোমার ?’
এটাই যেন একটা খেলার মত ছিল আমাদের !

খানিক পরে কিছু না-নিয়েই পাগলী চলে গেল।
আমরা জানতেও পারিনি, পাগলামি বাঁচানো ছাড়া
এ পৃথিবীতে সংসার বলতে কী ছিল আর !

তার ক্রুদ্ধ শব্দেরা ভারি পাথরের মত ছিটকে যাচ্ছে
দুর্বোধ্য সেই অভিশাপ চিলের মত ডানা মেলে
চক্রাকারে ঘুরছে আমাদের মাথার ওপর …

কোথাকার সে, শেষ পর্যন্ত জানাও গেল না
তার শব্দেরা কিন্তু হারাচ্ছে না আমাদের মধ্যে থেকে
হয়তো সে কোনো-একটি-জায়গার নয় ;
আর, তার বর্ণমালা, সেই সমস্ত ভাষারই শব্দজাত
যা শুধু পাগলেরাই ব্যবহার করে।
সে ভাষায় সে অভিশাপ দেয়,
প্রকাশ করে নিজস্ব মনুষত্বের :

যা আমাদের মত না-পাগলেরা কখনো বুঝতেই পারে না !
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বর্ণমালা
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একটি ভাষায় আমি অ লিখতে চাই
অ-এ অজগর, অ-এ অমল
কিন্তু লিখতে থাকি অ-এ অনর্থ, অ-এ অত্যাচার ;
ক-এ কলম অথবা করুণা লেখার চেষ্টা করি,
অথচ লিখতে থাকি ক-এ ক্রুরতা, ক-এ কুটিলতা।
এতদিন খ-এ খরগোশ লিখে এসেছি
এখন কিন্তু খ-এ খবরদারের পদধ্বনি।
ভাবতাম, ফ-এ ফুলই লেখা হয়
অনেক অনেক ফুল
ঘরের বাইরে, ঘরের ভিতর, মানুষের ভিতর …
অথচ দেখছি সেই সমস্ত ফুল চলে যাচ্ছে
মালা বানিয়ে গুন্ডাদের গলায় দেবার জন্য।

কে যেন আমার হাত চেপে ধরে আর বলে —
ভ-এ ভয় লেখো, যা এখন সর্বত্রই বিরাজমান !
দ দমনের আর প পতনেরই ইঙ্গিত
আততায়ী ছিনিয়ে নিচ্ছে আমাদের পুরো বর্ণমালাই
ওরা ভাষার হিংসাকে
বদলে দিচ্ছে সমাজের হিংসায়
আর তাই, হ-কে যত্নে তুলে রাখছে হত্যার জন্যে।

হাল আর হরিণ — যতই লিখতে চাই আমি,
ওরা কিন্তু হ-এ হত্যাই লিখে চলে সব সময়।
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বেঁচে থাকা জায়গাগুলো
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রোজই কিছু না কিছু ভুলতে থাকি,
কিছু না কিছু হারাতেই থাকি রোজ।
কোথায় রেখেছি চশমা, কলমটা হারালো কোথায়,
এইমাত্র কোথায় যেন নীল রংটা দেখেছিলাম,
কোথায় যে গেল !
চিঠির উত্তর দেওয়া কিংবা
ধারটুকু শোধ করার কথাও বেমালুম ভুলে যাই ;
ভুলে যাই বন্ধুদের অভিবাদন করতে,
এমনকি বিদায় জানানোর কথাও।
দু’হাত জোড়া
এমন সব অপছন্দের কাজে অস্থির থাকি,
মনে মনে আফশোস হয়।
কখনো এমনও হয় —
কী যে ভুলেছি, মনে রাখতে পারি না তাও !

মা বলত, শেষ গিয়েছিলে যেখানে, সেখানে যাও
কী দেখেছিলে, কী রেখেছিলে, মনে করো।
আর সেভাবে পেয়েও যেতাম হারিয়ে যাওয়াকে
বিস্ময়ের সঙ্গে খুশিও হত অপার।
মা বলত, কোনো জিনিস যেখানে হয়
সেখানে সে নিজের জায়গা করে নেয়,
খুব সহজেই তাকে মুছে ফেলা যায় না।

মা আজ আর নেই, রয়ে গেছে একটি জায়গা,
সমস্ত জীবন জুড়ে সে সঙ্গে চলতে থাকে।
আমার ঘর, মানুষ, এই জল আর গাছেদের ছেড়ে
দূরে, যেখানেই চলে যাই,
যেখান থেকে একটি পাথরের মত
গড়াতে গড়াতে চলে এসেছি,
সেই পাহাড়েও ছোট্ট একটি জায়গা
নিশ্চয়ই বেঁচে আছে !
এর মাঝেই আমার শহর
বিশাল এক বাঁধের জলে ডুবে গেলে আমি বলি,
এ তো সে নয়, আমার শহর শুধু শূন্যতা এক।

ঘটনাও একদিন বিলীন হয়ে যায়,
কিন্তু যেখানে ঘটেছিল, তৈরি হয় একটি জায়গা।
আর এভাবেই জমতে জমতে
সেও চলতে থাকে আমারই সঙ্গে ;
সে শুধু মনে করিয়ে দেয়, কী ভুলেছি আমি,
সে শুধু স্মরণ করিয়ে দেয়, হারিয়েছিই বা কতটুকু !
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রুটি আর কবিতা
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রুটি বানায় যে, সে কবিতা লেখে না।
যে কবিতা লেখে, সে রুটি বানায় না।
দু’জনের মধ্যে কোনো সম্পর্কও দেখি না।

কিন্তু কথাটা হচ্ছে
রুটি খাচ্ছে বলে যাকে দেখি,
সে আসলে কবিতা পড়ছে।
আর যাকে দেখে মনে হয় কবিতা পড়ছে
সে রুটি খাচ্ছে।
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মঙ্গলেশ ডবরাল
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ভারতের উত্তরাখণ্ডের গাঢ়োয়ালের টিহরী-র প্রত্যন্ত একটি গ্রামে কবি মঙ্গলেশ ডবরালের জন্ম ১৯৪৮ সালের ১৬ই মে। গ্রামের নাম কাফলপানী। আধুনিক হিন্দি কবিতায় মঙ্গলেশ ডবরাল বহুচর্চিত একটি নাম। ‘পহাড় পর লালটেন’, ‘ঘর কা রাস্তা’, ‘আওয়াজ ভী এক জগহ হ্যায়’, ‘নয়ে যুগ মে শত্রু’ প্রমুখ তাঁর উল্লেখযোগ্য কয়েকটি কাব্যগ্রন্থ। ২০০০ সালে তাঁর ‘হম জো দেখতে হ্যায়’ কাব্যগ্রন্থের জন্য তাঁকে আকাদেমি পুরস্কারে সম্মানিত করা হয়। তাঁর কবিতা ভারতীয় অন্য ভাষা ছাড়াও পৃথিবীর অন্য অনেক ভাষায়ও অনূদিত হয়েছে।

সম্প্রতি, ৯ই ডিসেম্বর ২০২০ বুধবার আধুনিক হিন্দি কবিতার জগতের অন্যতম কবি মঙ্গলেশ ডবরাল উত্তর প্রদেশের গাজিয়াবাদের একটি বেসরকারি নার্সিং হোমে প্রয়াত হন।
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पागल औरत / मंगलेश डबराल
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यह लगभग तय था कि वह पागल है
उसका तार-तार हुलिया उलझे हुए बाल ग़ुस्सैल चेहरा
उसकी पहचान तय करने के लिए काफ़ी थे
लेकिन यह समझना मुश्किल था कि उसके साथ क्या हुआ है
वह नुक्कड़ पर उस दूकान के सामने खड़ी हो गई थी
जहाँ सुबह-सुबह आसपास की झोपड़ियों के ग़रीब बच्चे
बहुराष्ट्रीय निगमों के चिप्स के पैकेट ख़रीदने आते हैं
उस औरत के पीछे कुछ आवारा कुत्ते
जैसे उसके शब्दों को समझने की कोशिश करते हुए चले आए थे
वह लगातार ऐसी भाषा में बड़बड़ा रही थी जो समझ से परे थी
किसी ने कहा बंगाली लगती है
दूसरे ने कहा अरे नहीं मद्रास की तरफ़ की होगी
तभी तो समझ नहीं आ रही है उसकी बात
एक ने कहा हिन्दी वाली ही है लेकिन अपनी भाषा भूल गई है
किसी को उसमें पंजाबी के कुछ शब्द सुनाई दिए
यह जानना भी कठिन था उसे क्या चाहिए
वह चाय की तरफ इशारा करती लेकिन जब हम उसे चाय देते
तो वह बिस्किट के पैकेटों की ओर देखती
बिस्किट देने पर चिप्स के पैकेटों की ओर
चिप्स देने पर उसकी उंगली फिर चाय की तरफ़ चली जाती
इस तरह वह कई चीज़ों की ओर संकेत करती
सड़क हवा पेड़ आसमान की तरफ देखकर भी बोलती जाती
कभी लगता वह हवा में से कोई चीज़ खींचकर अपने भीतर ला रही है
कभी लगता जैसे उसने अपनी बातों के जवाब भी सुन लिए हों
और बदले में वह कोई शाप दे रही हो
हम लोगों ने पूछा — ओ माँ, लगातार बोलोगी ही,
कुछ कहोगी नहीं, तुम्हें क्या चाहिए
और फिर यह हमारे लिए एक खेल की तरह हो गया
वह पगली कुछ देर बाद चली गई बिना कुछ लिए हुए
हम लोग जान नहीं पाए
इस संसार में आख़िर क्या था उसका संसार
सिवा इसके कि वह अपने पागलपन को बचाए रखना चाहती थी
लेकिन उसके क्रुद्ध शब्द भारी पत्थरों की तरह आस पास छूट गए
उसके दुर्बोध शाप चीलों की तरह हमारे ऊपर पर मण्डराने लगे
यह तय नहीं हो पाया आखिर वह कहाँ की रही होगी
लेकिन उसके शब्द हमारे बीच से हट नहीं रहे थे
शायद वह किसी एक जगह की नहीं थी
तमाम जगहों और इस समूचे देश की थी
और उसकी वर्णमाला उन तमाम भाषाओं के
उन शब्दों से बनी थी जिनका इस्तेमाल पागल लोग करते हैं
उनमें शाप देते रहते हैं
अपनी मनुष्यता व्यक्त करते हैं
जिसे हम जैसे गैर-पागल कभी समझ नहीं पाते।
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वर्णमाला
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एक भाषा में अ लिखना चाहता हूँ
अ से अनार अ से अमरूद
लेकिन लिखने लगता हूँ अ से अनर्थ अ से अत्याचार
कोशिश करता हूँ कि क से क़लम या करुणा लिखूँ
लेकिन मैं लिखने लगता हूँ क से क्रूरता क से कुटिलता
अभी तक ख से खरगोश लिखता आया हूँ
लेकिन ख से अब किसी ख़तरे की आहट आने लगी है
मैं सोचता था फ से फूल ही लिखा जाता होगा
बहुत सारे फूल
घरो के बाहर घरों के भीतर मनुष्यों के भीतर
लेकिन मैंने देखा तमाम फूल जा रहे थे
ज़ालिमों के गले में माला बन कर डाले जाने के लिए

कोई मेरा हाथ जकड़ता है और कहता है
भ से लिखो भय जो अब हर जगह मौजूद है
द दमन का और प पतन का सँकेत है
आततायी छीन लेते हैं हमारी पूरी वर्णमाला
वे भाषा की हिंसा को बना देते हैं
समाज की हिंसा
ह को हत्या के लिए सुरक्षित कर दिया गया है
हम कितना ही हल और हिरन लिखते रहें
वे ह से हत्या लिखते रहते हैं हर समय।
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बची हुई जगहें
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रोज़ कुछ भूलता कुछ खोता रहता हूँ
चश्मा कहाँ रख दिया है क़लम कहाँ खो गया है
अभी-अभी कहीं पर नीला रंग देखा था वह पता नहीं कहाँ चला गया
चिट्ठियों के जवाब देना क़र्ज़ की क़िस्तें चुकाना भूल जाता हूँ
दोस्तों को सलाम और विदा कहना याद नहीं रहता
अफ़सोस प्रकट करता हूँ कि मेरे हाथ ऐसे कामों में उलझे रहे
जिनका मेरे दिमाग़ से कोई मेल नहीं था
कभी ऐसा भी हुआ जो कुछ भूला था उसका याद न रहना भूल गया
माँ कहती थी उस जगह जाओ
जहाँ आख़िरी बार तुमने उन्हें देखा उतारा या रखा था
अमूमन मुझे वे चीज़ें फिर से मिल जाती थीं और मैं खुश हो उठता
माँ कहती थी चीज़ें जहाँ होती हैं
अपनी एक जगह बना लेती हैं और वह आसानी से मिटती नहीं
माँ अब नही है सिर्फ़ उसकी जगह बची हुई है

चीज़ें खो जाती हैं लेकिन जगहें बनी रहती हैं
जीवन भर साथ चलती रहती हैं
हम कहीं और चले जाते हैं अपने घरों लोगों अपने पानी और पेड़ों से दूर
मैं जहाँ से एक पत्थर की तरह खिसक कर चला आया
उस पहाड़ में भी एक छोटी सी जगह बची होगी
इस बीच मेरा शहर एक विशालकाय बांध के पानी में डूब गया
उसके बदले वैसा ही एक और शहर उठा दिया गया
लेकिन मैंने कहा यह वह नहीं है मेरा शहर एक खालीपन है

घटनाएँ विलीन हो जाती हैं
लेकिन जहां वे जगहें बनी रहती हैं जहां वे घटित हुई थीं
वे जमा होती जाती हैं साथ-साथ चलतीं हैं
याद दिलाती हुईं कि हम क्या भूल गया हैं और हमने क्या खो दिया है।
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रोटी और कविता
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जो रोटी बनाता है, कविता नही लिखता
जो कविता लिखता है, रोटी नही बनाता
दोनों का आपस में कोई रिश्ता नही दिखता।

लेकिन वह क्या है
जब एक रोटी खाते हुए लगता है
कविता पड़ रहे है
और कोई कविता पड़ते हुए लगता है
रोटी खा रहे है।
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2 thoughts on “অনুবাদঃ মঙ্গলেশ ডবরালের চারটি কবিতা – স্বপন নাগ

  1. কবি মঙ্গলেশ ডবরালের চারটি চমৎকার কবিতা উপহার দেওয়ার জন্য অনুবাদক কে অনেক ধন্যবাদ ও অভিনন্দন।

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